बुधवार, 20 जुलाई 2011

राही को समझाए कौन


किस महूरत में दिन निकलता है
शाम तक सिर्फ हाथ मलता है ,

वक़्त की दिल्लगी के बारे में
सोचता हूँ तो दिल दहलता है ,

दोस्तों ने जिसे डूबाया हो
वो जरा देर से संभलता है ,

हमने बौनो की जेब में देखी
नाम जिस चीज का सफलता है ,

तन बदलती थी आत्मा पहले
आजकल तन उसे बदलता है ,

एक धागे का साथ देने को
मोम का रोम -रोम जलता है ,

काम चाहे जेहन से चलता हो
नाम दीवानगी से चलता है ,
,
उस शहर में भी आग की है कमी
रात -दिन जो धुआं उगलता है ,

उसका कुछ तो इलाज़ करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है ,

सिर्फ दो -चार सुख उठाने को
आदमी बारहा फिसलता है ,

याद आते है शेर राही के
दर्द जब शायरी में ढलता है ,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बालस्वरूप राही
राही को समझाए कौन

20 टिप्‍पणियां:

Rakesh Kumar ने कहा…

उसका कुछ तो इलाज़ करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है ,

बहुत कमाल की प्रस्तुति है ज्योति जी.

आपका ब्लॉग पर आना बहुत अच्छा लग रहा है.
इतने दिनों से नहीं आयीं तो चिंतित सा हो गया था मन.आशा करता हूँ सब कुशल मंगल होगा.

मेरी पोस्टें भी आपका इंतजार कर रहीं हैं.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत सच कहा है।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

एक धागे का साथ देने को
मोम का रोम -रोम जलता है ,
काम चाहे जेहन से चलता हो
नाम दीवानगी से चलता है ,

राही जी की लाजवाब ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद!

कविता रावत ने कहा…

सिर्फ दो -चार सुख उठाने को
आदमी बारहा फिसलता है ,
याद आते है शेर राही के
दर्द जब शायरी में ढलता है
..bilkul sach...
bahut sundar prastuti..

Dr Varsha Singh ने कहा…

सिर्फ दो -चार सुख उठाने को
आदमी बारहा फिसलता है ,

याद आते है शेर राही के
दर्द जब शायरी में ढलता है ,


बालस्वरूप राही जी की बहुत ही सुंदर कविता .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. .

upendra shukla ने कहा…

बहुत ही अच्छी कविता

सुधीर राघव ने कहा…

बहुत सुंदर रचना

Dr.R.Ramkumar ने कहा…

kya bat hai...phir bat rahi ki ho to aur bhi sarthak...

par tippni ki Jyoti k bina cheezein bhi nahin dikhatin na?

निर्मला कपिला ने कहा…

उस शहर में भी आग की है कमी
रात -दिन जो धुआं उगलता है ,
बहुत खूब
उसका कुछ तो इलाज़ करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है ,
इस शेर मे आजकल की दुनिया की मानसिकता झलक रही है सरल आदमी तो आदमी ही नही समझा जता। उमदा गज़ल के लिये राही जी को बधाई।

अभिषेक मिश्र ने कहा…

काफी सार्थक हैं पंक्तियाँ इस दौर में.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत ही सुंदर कविता.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

रही जी की रचना पढवाने के लिए आभार

विभूति" ने कहा…

bhaut sunder rachna....

Dorothy ने कहा…

एक धागे का साथ देने को
मोम का रोम -रोम जलता है ,

खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

तन बदलती थी आत्मा पहले
आजकल तन उसे बदलता है ,

बहुत ही खूबसूरती के साथ लिखा है...
वाह...
ब्लॉग भी फॉलो कर लिया है आप भी आइए...

SAJAN.AAWARA ने कहा…

काम चाहे जेहन से चलता हो
नाम दीवानगी से चलता है ,
bilkul sahi kaha hai ma apne....
jai hind jai bharat

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

didi aap blog par aaye bahut pyara sandesh choda bahut accha laga....
didi aapki shayeri aapka lekhan kamal hai.
एक धागे का साथ देने को
मोम का रोम -रोम जलता है
didi waise to poori ghazl bahuyt pyari lekin is sher ne jaise manon jadu sa kar diya bahut sundar likha hai..
ummid hai aapki jaldi nai post paduinga......

"antarman ke bhavon se" par v aana aap kavi wahan ki post v aapko ummi d acchi lagegi sadar prnaam ....akshay

Dinesh pareek ने कहा…

मुझे क्षमा करे की मैं आपके ब्लॉग पे नहीं आ सका क्यों की मैं कुछ आपने कामों मैं इतना वयस्थ था की आपको मैं आपना वक्त नहीं दे पाया
आज फिर मैंने आपके लेख और आपके कलम की स्याही को देखा और पढ़ा अति उत्तम और अति सुन्दर जिसे बया करना मेरे शब्दों के सागर में शब्द ही नहीं है
पर लगता है आप भी मेरी तरह मेरे ब्लॉग पे नहीं आये जिस की मुझे अति निराशा हुई है
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/

स्वाति ने कहा…

उस शहर में भी आग की है कमी
रात -दिन जो धुआं उगलता है ,
wah wah....

masoomshayer ने कहा…

रही जी की ये रचना मैंने बरसों पहले करीब 1975 को हरिद्वार B H E L में सुनी थी बच्चा था कवि का नाम भूल गया पर शेर रोम रोम जलता है मन से नहीं निकली पूरा कलाम और शायर का नाम तलाश करता रहा आज दोनों यहाँ मिल गये एक बात का थोड़ा सा दुःख रहा मुझे की कुछ दिन पहले सुनो सुनाओ कार्यक्रम में जब आप से मिला मुझे नहीं पता था ये रचना आप की है नहीं तो आप से सुनता शुक्रिया कल्पतरु