शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

तुम कल्पना करो नवीन

तुम  कल्पना  करो, नवीन  कल्पना करो !
                                तुम  कल्पना  करो !


अब घिस गयी समाज की तमाम नीतियां,
अब घिस गयी मनुष्य  की अतीत रीतियाँ,
है   दे   रहीं   चुनौतियाँ   तुम्हें    कुरीतियाँ,
निज  राष्ट्र  के  शरीर  के  सिंगार  के  लिए --

तुम  कल्पना  करो, नवीन  कल्पना करो !
                                तुम  कल्पना  करो !


जंजीर   टूटती    कभी    न    अश्रुधार   से,

दुख-दर्द    दूर    भागते    नहीं   दुलार   से,

हटती   न   दासता   पुकार   से,  गुहार  से,

इस  गंग-तीर   बैठ  आज  राष्ट्र  शक्ति  की --

तुम  कामना करो, किशोर, कामना करो !

                                  तुम कामना करो !


जो तुम  गए, स्वदेश  की जवानियाँ  गयी,

चित्तौड़   के  प्रताप   की   कहानियां  गयी,

आज़ाद   देश   रक्त  की   रवानियाँ   गयी,

अब सूर्य-चन्द्र की समृद्धि ऋषि-सिद्धि की --

तुम   याचना  करो,  दरिद्र,  याचना करो !

                                  तुम याचना करो !


जिसकी तरंग लोल हैं अशांत सिन्धु वह,

जो  काटता  घटा  प्रगाड़  वक्र !  इंदु  वह,

जो  मापता  समग्र  सृष्टि  दृष्टि-बिंदु  वह,

वह  है मनुष्य,  जो स्वदेश की व्यथा हरे,

तुम  यातना  हरो,  मनुष्य, यातना हरो !

                                 तुम यातना हरो !


तुम  प्रार्थना किये चले, नहीं दिशा हिली,

तुम साधना किये चले, नहीं निशा हिली,

इस  आर्त  दीन  देश  की न दुर्दशा हिली,

अब  अश्रु दान  छोड़  आज शीश दान से --

तुम  अर्चना करो, अमोध, अर्चना करो !

                                तुम अर्चना करो !


आकाश  है  स्वतंत्र,  है  स्वतंत्र  मेखला,

यह  श्रृंग  भी  स्वतंत्र ही खड़ा बना ढला,

है  जल  प्रपात   काटता  सदैव  श्रृंखला,

आनंद, शोक, जन्म और मृत्यु के लिए --

तुम योजना करो, स्वतंत्र योजना करो !

                               तुम योजना करो !




                            गोपाल सिंह नेपाली 

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

नर हो न निराश करो मन को

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को 

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के 
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को 

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो

- मैथिलीशरण गुप्त


रविवार, 21 फ़रवरी 2021

चेतक

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक[1] पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में

बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि[2] की सेना पर घहर गया

भाला गिर गया गिरा निसंग
हय[3] टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

आराम करो

आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास