गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

चार मुक्तक


जिंदगी को मृत्यु का पीना जहर है ,
वक़्त की हर सांस में सोयी कहर है ,
चाँद पर दुनिया भले कोई बसाले ,
अंत में इंसान का मरघट शहर है
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आन पर दे जान ,वह बलिदान है ,
जो रहे बेदाग़ ,वह ईमान है
जो पराये दर्द को अपना सके ,
है नही इंसान वह भगवान है
.....................................................
संयमित चाह का विस्तार नही होता है ,
दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है
टूट जाये जो समय की आँधियों के साथ ही ,
बस हविश है देह की ,वह प्यार नही होता है
===========================
लाश जलती देख कर हम सोच लिया करते है ,
जो यहाँ पैदा हुए , दो रोज जिया करते है
जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है

32 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है ।
बहुत ही खुब जी , सत्य वचन.
धन्यवाद

Rajesh Kumar 'Nachiketa' ने कहा…

झकझोर देने वाले मुक्तक ....बढ़िया.

विशाल ने कहा…

चारों मुक्तक बहुत खूब.खासकर......
संयमित चाह का विस्तार नही होता है ,
दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है ।
टूट जाये जो समय की आँधियों के साथ ही ,
बस हविश है देह की ,वह प्यार नही होता है ।
अतिसुन्दर.
आप की यह पंक्ति तो ज़िन्दगी भर नहीं भूल सकूंगा.

"दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है ।"
ढेरों शुभ कामनाएं

Kunwar Kusumesh ने कहा…

जो पराये दर्द को अपना सके ,
है नही इंसान वह भगवान है ।

लाजवाब पंक्तियाँ .

चारो मुक्तक एक से बढ़कर एक.

Akhilesh pal blog ने कहा…

bahoot khoob jyoti ji

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काश हम सब यह सत्य समझ सकें।

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर ने कहा…

सच में दर्द से दर्द का शृंगार नहीम् होता।

एक निवेदन..
मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

Patali-The-Village ने कहा…

चारो मुक्तक एक से बढ़कर एक| धन्यवाद|

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर ने कहा…

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर said...

डॉ. डंडा लखनवी जी के दो दोहे

माननीय डॉ. डंडा लखनवी जी ने वृक्ष लगाने वाले प्रकृतिप्रेमियों को प्रोत्साहित करते हुए लिखा है-

इन्हें कारखाना कहें, अथवा लघु उद्योग।
प्राण-वायु के जनक ये, अद्भुत इनके योग॥

वृक्ष रोप करके किया, खुद पर भी उपकार।
पुण्य आगमन का खुला, एक अनूठा द्वार॥

इस अमूल्य टिप्पणी के लिये हम उनके आभारी हैं।

http://pathkesathi.blogspot.com/
http://vriksharopan.blogspot.com/

आचार्य परशुराम राय ने कहा…

ये मुक्तक बड़े अच्छे लगे। आभार।

HEMU ने कहा…

नौजवान भारत समाचार पत्र
सभी साथियो को सूचित किया जाता है कि हमने एक खोज शुरू की है युवा प्रतिभाओं की। जिसमें हम देश की उपेक्षित युवा प्रतिभाओं को आगे लाना चाहते है। जो युवा प्रतिभा इस में भाग लेना चाहते हो वो अपनी रचना इस ई मेल पर भेजें 


noujawanbharat@gmail.com

noujawanbharat@yahoo.in



contect no. 097825-54044

090241-119668:48 PM

कविता रावत ने कहा…

लाश जलती देख कर हम सोच लिया करते है ,
जो यहाँ पैदा हुए , दो रोज जिया करते है ।
जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है ।

..esi ka naam insaan hai...
bahut badiya chintansheel prastuti

Arvind Mishra ने कहा…

प्यार और वासना का फर्क
बिलकुल जी -बहुत सच!

sumeet "satya" ने कहा…

लाश जलती देख कर हम सोच लिया करते है ,
जो यहाँ पैदा हुए , दो रोज जिया करते है ।
जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है ।
............................................bahut sundar

केवल राम ने कहा…

लाश जलती देख कर हम सोच लिया करते है ,
जो यहाँ पैदा हुए , दो रोज जिया करते है ।
जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है ।

यह सब कुछ हमारे सामने घटता है ..और हम मूकदर्शक बने रहते हैं ...जिन्दगी की वास्तविकता को आपने बखूबी अभिव्यक्त किया है ...सुंदर विचार

Mithilesh dubey ने कहा…

चरों मुक्तक लाजवाब लगें लेकिन ये वाला दिल को छू गया
संयमित चाह का विस्तार नही होता है ,
दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है ।
टूट जाये जो समय की आँधियों के साथ ही ,
बस हविश है देह की ,वह प्यार नही होता है ।

सहज साहित्य ने कहा…

ज्योतिसिंह जी आपके मुक्तक पढ़े । प्रत्येक मुक्तक में जीवन -सत्य के दर्शन होते हैं । बहुत सुन्दर !
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Rakesh Kumar ने कहा…

'aan par de jaan,veh balidaan hai,
jo rahe bedaag, veh imaan hai
jo paraye dard ko apna sake,hai
nahi insaan veh bhagwaan hai'
Ati sunder prernapoorn abhivyakti.

ZEAL ने कहा…

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आन पर दे जान ,वह बलिदान है ,
जो रहे बेदाग़ ,वह ईमान है ।
जो पराये दर्द को अपना सके ,
है नही इंसान वह भगवान है ॥

वाह क्या बात लिखी है । वास्तव में पराया दर्द जो अपना सके , वह फ़रिश्ता ही है ।

.

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

सुश्री ज्योतिसिंह जी! आपके मुक्तक पढ़े । प्रत्येक मुक्तक में जीवन-सत्य उद्घटित हुआ है। प्रभावी लेखन के लिए बधाई स्वीकार कीजिए। आपके लेखन से लगता है कि आपके पास अनेक रसों में काफी मात्रा में मुक्तक हैं। अतएव ब्लाग पर रचना प्रकाशन संबंधी एक सुझाव है। बहुत आवश्यक न हो तो एक पोस्ट में एक ही रस के मुक्तकों को सामिल किया कीजिए। इससे रस निष्पत्ति संबंधी तारतम्य भंग नहीं होगा। विरोधी रसों की उपस्थिति से रस-प्रवाह भंग हो जाता है। फलस्वरूप पाठक के रसानंद में कमी आ जाती है। कुछ पदों को इधर-उधर करने से आपसे पहला मुक्तक निम्नलिखित रूप में भी हो सकता है। आप चाहे तो इसे सहेज लें।
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"सांस तो वर दायनी आठों पहर है।
मृत्यु ढ़ाती किन्तु जीवन पर कहर है॥
चाँद पर दुनिया बसाले कोई लेकिन-
किन्तु अंतिम ठाँव तो मरघट शहर है।"
==========================
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

Vijuy Ronjan ने कहा…

संयमित चाह का विस्तार नही होता है ,
दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है ।
टूट जाये जो समय की आँधियों के साथ ही ,
बस हविश है देह की ,वह प्यार नही होता है ।

Bahut khub kaha aapne..Main soch raha tha ki DFinkar ki ji ki pankti:
"ROOP KI AARADHNA KA MARG AALINGAN NAHIN TO AUR KYA HAI."
jawab kuchh to hoga.aapne diya.Subham bhuyat.

Rajeysha ने कहा…

अंत में इंसान का मरघट शहर है।
खूब हकीकत बयान की है। शायद आपको भी हमारी हकीकतें पसंद आयें, वि‍जि‍ट करें http://rajey.blogspot.com/

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

सुन्दर रचना आपकी ... चारों मुक्तक उम्दा ... बहुत खूब..
शुक्रवार को आपकी यह रचना चर्चामंच पर होगी... आपका आभार ..
http://charchamanch.blogspot.com
मेरा ब्लॉग - http://amritras.blogspot.com

Ramesh Roy ने कहा…

Great ! really you have written reality of life. Keep it up.our wishes with you.
Thanks,
Ramesh
http://neelprerna.blogspot.com/

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आद.ज्योति जी,

जिंदगी को मृत्यु का पीना जहर है ,
वक़्त की हर सांस में सोयी कहर है ,
चाँद पर दुनिया भले कोई बसाले ,
अंत में इंसान का मरघट शहर है ।

इन चार पंक्तियों में आपने ज़िन्दगी की पूरी सच्चाई उड़ेल कर रख दिया है !
सभी मुक्तक बहुत ही अच्छे हैं ,मन को छूते हैं ,भावनावों को उद्वेलित करते हैं !
आभार एवं शुभकामनाएँ !

'साहिल' ने कहा…

खूबसूरत मुक्तक..........आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा

बेनामी ने कहा…

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु

शिवमय हो वह मेरा मानस .
हे प्रभु ! देना यह वरदान..

सशक्त चिंतन..

amrendra "amar" ने कहा…

चारों मुक्तक बहुत खूब,धन्यवाद

Patali-The-Village ने कहा…

चारो मुक्तक एक से बढ़कर एक| धन्यवाद|

amrendra "amar" ने कहा…

चारों मुक्तक बहुत खूब*****
धन्यवाद****

Rahul Singh ने कहा…

असरदार मुक्‍तक.

sumeet "satya" ने कहा…

Behtareen muktak....
har ek me bhavon ki tsunami si chupi huyi hai