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गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

चार मुक्तक


जिंदगी को मृत्यु का पीना जहर है ,
वक़्त की हर सांस में सोयी कहर है ,
चाँद पर दुनिया भले कोई बसाले ,
अंत में इंसान का मरघट शहर है
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आन पर दे जान ,वह बलिदान है ,
जो रहे बेदाग़ ,वह ईमान है
जो पराये दर्द को अपना सके ,
है नही इंसान वह भगवान है
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संयमित चाह का विस्तार नही होता है ,
दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है
टूट जाये जो समय की आँधियों के साथ ही ,
बस हविश है देह की ,वह प्यार नही होता है
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लाश जलती देख कर हम सोच लिया करते है ,
जो यहाँ पैदा हुए , दो रोज जिया करते है
जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है