मंगलवार, 15 जून 2010

ग़ज़ल


लम्हाते-कब ये भी उबूरी है दोस्तो
हम अपने घर में गैरजरूरी है दोस्तों

मंजिल पे आके हाथो को देखा तो दुख हुआ
अब भी कई लकीरे अधूरी है दोस्तों

उसका ख्याल ,उससे मुलाकात ,गुफ्तगू
तन्हाइयों के खेल री है दोस्तों

बच्चो की परवरिश के लिए खूने -दिल के साथ
झूठी कहानियां भी जरूरी है दोस्तो

वो जहनी इन्तेहात है 'वामिक ' कहे भी क्या
यादें जो रह गई है ,अधूरी है दोस्तो
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रचनाकार ------अख्तर 'वामिक '

12 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

bahut baddhiya

sanu shukla ने कहा…

बहुत सुंदर..

iisanuii.blogspot.com

Udan Tashtari ने कहा…

वाह! बढ़िया रही गज़ल!

M VERMA ने कहा…

मंजिल पे आके हाथो को देखा तो दुख हुआ
अब भी कई लकीरे अधूरी है दोस्तों ।
बहुत सुन्दर
शायद इस अधूरी लकीर को पूरा करने की ख्वाहिश एक और नई मंजिल दे दे.

संजय भास्‍कर ने कहा…

आप ने बहुत कमाल की गज़ले कही हैं

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद ..सुंदर ग़ज़ल

निर्मला कपिला ने कहा…

मंजिल पे आके हाथो को देखा तो दुख हुआ
अब भी कई लकीरे अधूरी है दोस्तों
लाजवाब गज़ल बधाई

वाणी गीत ने कहा…

मंजिल पे आके हाथो को देखा तो दुख हुआ
अब भी कई लकीरे अधूरी है दोस्तों ...
रह जाती हैं लकीरें कई अधूरी भी ...
अच्छी ग़ज़ल ..

अरुणेश मिश्र ने कहा…

वाह !! वाह !!
लाजबाव ।

शरद कोकास ने कहा…

अच्छी गज़ल है

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

ek umda gajal ke liye badhai.....:)

waise ab follow kar raha hoon, barabar aapke blog ka pathak rahunga........
kabhi hamare blog pe aayen