अस्ल में किस्सा समोना चाहिए
खेल कठपुतली का होना चाहिए ।
मंजरो की फ़स्ल मुरझाने लगी
हैरतो के बीज बोना चाहिए ।
क्या जमाना है कि मेरे हाल पर
वो हँसे है जिनको रोना चाहिए ।
यूं तो इस दुनिया में क्या होता नही
वो नही होता , जो होना चाहिए ।
फासले ढल जाये आहट में तिरी
बस समाअत तेज होना चाहिए ।
फ़ैसला करना बहुत मुश्किल है अब
किसको को पाना किस को खोना चाहिए ।
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मंजूर हाशमी की ग़ज़ल
लिखकर रखो ,
बाद में देता हूँ !
भेज देता हूँ ,
आके लेके जा !
भरोसा नही है क्या ?
कल देता हूँ ,
सुबह देता हूँ ,
पहेचान नही है क्या ?
पगार हुआ नही ?
भाग के जाऊँगा क्या ?
चेक बुक नही है !
घर में शादी है !
माँ बिमार है !
बैंक बंद है !
क्या करने का कर !
इसलिए उधारी बंद है ........ ।
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मैं अभी पुणे गयी तो एक दुकान में यह ग्राहकों के लिए विशेष रूप से लिख कर सामने रक्खा गया था ,और मैं सोची इसे आप सभी से साझा करूंगी ,क्योंकि हम अक्सर मिलने वाले फायदे को अपनी लापरवाही में गवां देते है और दूसरे को फिर कोसते है ,बजाये अपनी गलती को समझने के . देने वाला अक्सर अपराधी हो जाता है और उल्टा नम्र भी ,परन्तु लेने वाला सीना ताने अपनी जुबान का भी लिहाज नही करता ,प्रकृति के इस विचत्र रवैये को अच्छाई जरा भी नही समझ पाई , इस कारण बचाव व शान्ति के लिए ऐसे तरीके अपनाने को विवश हुई और जज्बाती न होकर प्रायोगिक बनने लगी .आदमी मिलने वाली सुविधाओ को अपने ही पैरों से ठोकर मार देता है ,इसमें बेकसूर को भी वेवजह शामिल होना पड़ता है ।
खुली किताब के शामो -सहर भी आयेंगे
भरी दुपहर में तारे नज़र भी आयेंगे ।
जला के कोई ना रक्खे चिराग गलियों में
लुटेरे लूटने शायद इधर भी आयेंगे ।
अभी हाथ ही काटे गये है सपनो के
जमीन पे टूटकर ख्वाबों के सर भी आएँगे ।
जो शख्स देर तक उलझा रहेगा काँटों में
उसी के हाथ में तितली के पर भी आयेंगे ।
बस अपनी रूह के जख्मों को तुम हरा रखना
सफ़र में सैकड़ों सूखे शजर भी आयेंगे ।
चलो गुनाह के पत्थर ही जेब में रख ले
सुना है राह में शीशे के घर भी आएँगे ।
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रचनाकार -------माधव कौशिक