बुधवार, 4 नवंबर 2009

क्या पता .....

गोखरू की शक्ल में दिन -पर -दिन तबदील थी ,

क्या पता इस पाँव में कब से गडी यह कील थी

आज जो तुम देखते हो खुश्क रेतों को यहाँ ,

क्या पता है कि यहाँ कल खूबसूरत झील थी

इक धुंधलका ही था जो पर्दा बन गया है अब ,

वरना इसके बिना बहुत ये ज़िन्दगी अश्लील थी

क्या अंधेरो ने सबक सिखला दिया है फिर उसे ,

रात जो निकली तो उसके हाथ में कंदील थी


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रचनाकार ----विवेक सिंह