गोखरू की शक्ल में दिन -पर -दिन तबदील थी ,
क्या पता इस पाँव में कब से गडी यह कील थी ।
आज जो तुम देखते हो खुश्क रेतों को यहाँ ,
क्या पता है कि यहाँ कल खूबसूरत झील थी ।
इक धुंधलका ही था जो पर्दा बन गया है अब ,
वरना इसके बिना बहुत ये ज़िन्दगी अश्लील थी ।
क्या अंधेरो ने सबक सिखला दिया है फिर उसे ,
रात जो निकली तो उसके हाथ में कंदील थी ।
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रचनाकार ----विवेक सिंह