सोमवार, 27 सितंबर 2010

नीरज जी कुछ दोहे


आत्मा के सौन्दर्य का ,शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है ,कवि होना सौभाग्य

जब से पनपा देश में ,अयोग्यता का वंश
कौए तो मोती चुगे ,आंसू पीये हंस

सिसक - सिसक रोया बहुत सारा घर - परिवार
जिस दिन उठवायी गई आँगन में दीवार

हो जाये जब शान्ति के सब प्रयत्न बेकार
तब फिर केवल युद्ध ही अंतिम उपचार

घर -घर में आंधी खडी दर -दर पर तूफ़ान
कैसे इस माहौल में ,जिए कहो इंसान


कुर्सी की महिमा अमित ,हमसे कही जाये
कभी बिठाये तख्त पर ,कभी जेल पहुंचाए


पीछे तो निंदा करे ,सम्मुख परसे प्यार
खतरनाक है शत्रु से ज्यादा ऐसे यार

विज्ञापन ने है रचा ऐसा मायाजाल
हम साड़ी के दाम में , करते क्रय रूमाल

टी .वी ने हम पर किया यूं छुप -छुप कर वार
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर -तलवार


बनना है तुमको अगर 'नीरज ' यहाँ अमीर
सोचो मत किस चीज को कहते यहाँ जमीर

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गोपालदास नीरज



सोमवार, 13 सितंबर 2010

जीवन नही मरा करता है


छुप छुप अश्रु बहाने वालों !
मोती व्यर्थ लुटाने वालों !
कुछ सपनो के मर जाने से जीवन नही मरा करता है
सपना क्या है नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ,ज्यो
जागे कच्ची नीँद जवानी ,
गीली उमर बनाने वालों !
डूबे बिना नहाने वालों !
कुछ पानी के बह जाने से सावन नही मरा करता है
कुछ भी मिटता नही यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती ,
चाल बदल कर जाने वालों !
वस्त्र बदल कर आने वालों !
चंद खिलौने के खोने से बचपन नही मरा करता है
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गोपालदास नीरज

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

भाई -बहन


तू चिंगारी बनकर उड़ री ,जाग -जाग मैं ज्वाल बनूँ ,
तू बन जा हहराती गंगा ,मैं झेलम बेहाल बनूँ ,
आज बसन्ती चोला तेरा ,मैं भी सज लूं लाल बनूँ ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली ,मैं भाई विकराल बनूँ ,
यहाँ कोई राधारानी ,वृन्दावन ,बंशीवाला ,
तू आँगन की ज्योति बहन री ,मैं घर का पहरे वाला
बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं ,तू ममता की गोद बनी ,
मेरा जीवन क्रीडा -कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी ,
मैं भाई फूलों में भूला ,मेरी बहन विनोद बनी ,
भाई की गति ,मति भगिनी की दोनों मंगल -मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले ,सारे फूल जला देना
जननी की जंजीर बज रही ,चल तबियत बहला देना
भाई एक लहर बन आया ,बहन नदी की धारा है ,
संगम है ,गंगा उमड़ी है ,डूबा कूल -किनारा है ,
यह उन्माद ,बहन को अपना भाई एक सहारा है ,
यह अलमस्ती ,एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है ,
पागल घडी ,बहन -भाई है ,वह आजाद तराना है
मुसीबतों से ,बलिदानों से ,पत्थर को समझाना है
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कवि----गोपाल सिंह नेपाली
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बचपन से इस कविता को हम सभी भाई बहन अपनी माँ से सुनते रहे है और हमें आज भी ये उतनी ही प्रिय है ,इस पावन पर्व पर डालने से इसकी महत्ता और बढ़ जायेगी ,शायद आप सभी मित्रो को भी भाये ,रक्षाबंधन के शुभ अवसर पर बहुत बहुत बधाई

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

फूलों की कश्तियाँ


अस्ल में किस्सा समोना चाहिए
खेल कठपुतली का होना चाहिए

मंजरो की फ़स्ल मुरझाने लगी
हैरतो के बीज बोना चाहिए

क्या जमाना है कि मेरे हाल पर
वो हँसे है जिनको रोना चाहिए

यूं तो इस दुनिया में क्या होता नही
वो नही होता , जो होना चाहिए

फासले ढल जाये आहट में तिरी
बस समाअत तेज होना चाहिए

फ़ैसला करना बहुत मुश्किल है अब
किसको को पाना किस को खोना चाहिए
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मंजूर हाशमी की ग़ज़ल

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

उधारी बंद क्यों ?


लिखकर रखो ,
बाद में देता हूँ !
भेज देता हूँ ,
आके लेके जा !
भरोसा नही है क्या ?
कल देता हूँ ,
सुबह देता हूँ ,
पहेचान नही है क्या ?
पगार हुआ नही ?
भाग के जाऊँगा क्या ?
चेक बुक नही है !
घर में शादी है !
माँ बिमार है !
बैंक बंद है !
क्या करने का कर !
इसलिए उधारी बंद है ........ ।
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मैं अभी पुणे गयी तो एक दुकान में यह ग्राहकों के लिए विशेष रूप से लिख कर सामने रक्खा गया था ,और मैं सोची इसे आप सभी से साझा करूंगी ,क्योंकि हम अक्सर मिलने वाले फायदे को अपनी लापरवाही में गवां देते है और दूसरे को फिर कोसते है ,बजाये अपनी गलती को समझने के . देने वाला अक्सर अपराधी हो जाता है और उल्टा नम्र भी ,परन्तु लेने वाला सीना ताने अपनी जुबान का भी लिहाज नही करता ,प्रकृति के इस विचत्र रवैये को अच्छाई जरा भी नही समझ पाई , इस कारण बचाव व शान्ति के लिए ऐसे तरीके अपनाने को विवश हुई और जज्बाती न होकर प्रायोगिक बनने लगी .आदमी मिलने वाली सुविधाओ को अपने ही पैरों से ठोकर मार देता है ,इसमें बेकसूर को भी वेवजह शामिल होना पड़ता है ।

रविवार, 4 जुलाई 2010

अंगारे पर नंगे पाँव से ली गयी रचना है ....


खुली किताब के शामो -सहर भी आयेंगे
भरी दुपहर में तारे नज़र भी आयेंगे

जला के कोई ना रक्खे चिराग गलियों में
लुटेरे लूटने शायद इधर भी आयेंगे

अभी हाथ ही काटे गये है सपनो के
जमीन पे टूटकर ख्वाबों के सर भी आएँगे

जो शख्स देर तक उलझा रहेगा काँटों में
उसी के हाथ में तितली के पर भी आयेंगे

बस अपनी रूह के जख्मों को तुम हरा रखना
सफ़र में सैकड़ों सूखे शजर भी आयेंगे

चलो गुनाह के पत्थर ही जेब में रख ले
सुना है राह में शीशे के घर भी आएँगे

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रचनाकार -------माधव कौशिक