शनिवार, 13 मार्च 2021

मेरा नया बचपन


मेरा नया बचपन
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

- सुभद्रा कुमारी चौहान

11 टिप्‍पणियां:

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

ज्योति जी,जब मैं बारहवीं में थी तो मेरे कॉलेज में कवि दरबार का मंचन हुआ था जिसमे मैंने सुभद्रा कुमारी चौहान का किरदार निभाया था और यही कविता बड़े सुरों और लय ताल के साथ गाई थी,और मुझे प्रथम पुरस्कार मिला था । बचपन की उन सुनहरी यादों में ले जाने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद एवम वंदन, सुंदर और भावपूर्ण रचना..सुभद्रा कुमारी चौहान जी की को शत शत नमन..

ज्योति सिंह ने कहा…

मेरा सौभाग्य है कि सुभद्रा जी की रचना के माध्यम से आपके अच्छी यादों के भागीदार बनने का अवसर मेरे हाथ लगा , पुराने दिनों को याद करते समय मन अपने आप ही कह उठता है , कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, कल की रचनाएँ , कल की यादें हृदय के बहुत ही पास होती है , इतनी प्यारी अनमोल टिप्पणी के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया जिज्ञासा जी नमन

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

😊🙏🌹

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 15 -03 -2021 ) को राजनीति वह अँधेरा है जिसे जीभर के आलोचा गया,कोसा गया...काश! कोई दीपक भी जलाता! (चर्चा अंक 4006) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बढ़िया संकलन है आपके पास . हर माँ के दिल को छूती सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ने मन मोह लिया .

ज्योति सिंह ने कहा…

संगीता जी सारी रचनाएँ बचपन की पढ़ी हुई है, हमारी माँ हमें दोहे , कविता को लेकर ही अंताक्षरी का खेल खेलवाया करतीं रही, तभी हम सभी भाई बहनों को पाठ्यपुस्तक की सारी पद्य रचनाएँ कंठस्थ याद हो जाती थी, इसका फ़ायदा परीक्षा में भी मिला करता रहा,कुछ रचना मेरी माँ की पढ़ी हुई थी, वो भी खेल खेल में सुनकर याद हो गई ,उन्हीं को आप सभी से सांझा कर रही हूँ . हार्दिक आभार , आप सभी बचपन के साथी तो नही है परंतु मेरी बचपन की पढ़ी हुई कविता के साथी जरूर बनते जा रहे हैं ,इसके लिए आप सभी ब्लॉगर साथियों का तहे दिल से शुक्रिया।

ज्योति सिंह ने कहा…

संगीता जी सारी रचनाएँ बचपन की पढ़ी हुई है, हमारी माँ हमें दोहे , कविता को लेकर ही अंताक्षरी का खेल खेलवाया करतीं रही, तभी हम सभी भाई बहनों को पाठ्यपुस्तक की सारी पद्य रचनाएँ कंठस्थ याद हो जाती थी, इसका फ़ायदा परीक्षा में भी मिला करता रहा,कुछ रचना मेरी माँ की पढ़ी हुई थी, वो भी खेल खेल में सुनकर याद हो गई ,उन्हीं को आप सभी से सांझा कर रही हूँ . हार्दिक आभार , आप सभी बचपन के साथी तो नही है परंतु मेरी बचपन की पढ़ी हुई कविता के साथी जरूर बनते जा रहे हैं ,इसके लिए आप सभी ब्लॉगर साथियों का तहे दिल से शुक्रिया।

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

बहुत ही अच्छी रचना मैंने भी सुभद्रा कुमारी चौहान रचनाओं को पढा है धन्यवाद इस रचना के लिए आदरणीय ज्योति जी

Jyoti Dehliwal ने कहा…

सुभद्रा कुमारी जी की बहुत ही सुंदर रचना है ये। शेयर करने के लिए धन्यवाद, ज्योति दी।

Kamini Sinha ने कहा…

हर मां के दिल की आवाज को शब्दों में पिरो दिया है आदरणीय सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने,साझा करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद ज्योति जी

Shantanu Sanyal शांतनु सान्याल ने कहा…

भावों व शब्दों का सौंदर्य बिखेरती रचना मुग्ध करती है।