सोमवार, 28 दिसंबर 2009

पछतावा

मानव क्यों उठता है ?

अच्छे कर्म से

क्यों गिरता है ?

कुछ गलतियों से

किसके लिए प्रयत्न करता ?

जिंदगी के लिए

परिश्रमी क्यों बनता ?

सफलता के लिए

इन सभी के बाद ,

क्या रखता है चाह ?

लक्ष्य की प्राप्ति

क्यों रोता है ?

जीवन का मूल्य

खो देने पर

कब करता पछतावा

मौका निकल जाने पर

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ज्योति सिंह

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

भरोसा ..

सच हो , लोगो की बात

शंकित हो ,मेरे विचार ,

कमजोर करो, मेरे विश्वास

संकीर्ण करो ,अपने ख्याल ,

कुछ तो रक्खो ,रिश्तों की लाज

जिससे टूटे ,मन की आस

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

मैं आज शहरयार की ग़ज़ल लिख रही हूँ ,शायद आप सभी उन्हें पढ़े होंगे -----


तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नही है क्या

कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नही है क्या


तमाम खल्क -ए-खुदा इस जगह रुकी क्यो है

यहाँ से आगे कोई रास्ता नही है क्या


लहू -लुहान सभी कर रहे है सूरज को

किसी को खौफ यहाँ रात का नही है क्या


मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिम - -शहर

जो हो रहा है उसे देखता नही है क्या


उजाड़ते है जो नादाँ इसे उजड़ने दो

कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नही है क्या

बुधवार, 4 नवंबर 2009

क्या पता .....

गोखरू की शक्ल में दिन -पर -दिन तबदील थी ,

क्या पता इस पाँव में कब से गडी यह कील थी

आज जो तुम देखते हो खुश्क रेतों को यहाँ ,

क्या पता है कि यहाँ कल खूबसूरत झील थी

इक धुंधलका ही था जो पर्दा बन गया है अब ,

वरना इसके बिना बहुत ये ज़िन्दगी अश्लील थी

क्या अंधेरो ने सबक सिखला दिया है फिर उसे ,

रात जो निकली तो उसके हाथ में कंदील थी


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रचनाकार ----विवेक सिंह

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

यथार्थ

ज़िन्दगी की हार पर इस कदर मायूस हो

मौत की ही जीत पर तू खुशियाँ मना ले

ईंटे-पत्थरो के महल में सूकून नही होता

एक -दूसरे के दिल में ही तू जगह बना ले

बुझ गए है सारे दिए साथ के तेरे

पहचान अगर बनानी है तो ख़ुद को जला ले

बुझने से बचा ना पायेगा दिवाली के दिए को

हकीकत के ही अंधेरे से तू घर को सजा ले

दिली चाहत है मिटाने की ,जो मज़हब की हदों को

रमजान मना लूँ मैं ,दशहरा तू मना ले

दिवाली है नही पूजने को लक्ष्मी की मूर्ति

गृह-लक्ष्मी को तू एक दिन तो लक्ष्मी बना ले

दो वक्त दीपक जलाया और लक्ष्मी मिल गई

माँ -बाप के अरमान ऐसे ,काश पूरे हो जाते सही

ज़िन्दगी भर पूजा है तन -मन -धन से जिसने तुझे

अब देर कर उठ ,पूजा की भभूति छोड़कर

जा माँ -बाप के चरणों की थोड़ी धूल लगा ले


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रचनाकार -----विवेक सिंह

शुभ -दीपावली

यथार्थ

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

आदम को खुदा मत कहो

आदम खुदा नही ,

लेकिन खुदा की नूर से

आदम जुदा नही

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अकबर इलाहाबादी

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दर्द से कुछ इस तरह नाता रहा

दर्द का अहसास जाता रहा

दोस्ती हमसे हमारी रात से

भोर से हर शक्स कतराता रहा

अन्जान

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

हुई क्या मुझसे कोई भूल ?

जलाकर आशा के तुम दीप
गए बिखरा क्यो जीवन- फूल ,
सुभग था मेरा वह जीवन
भरी जिसने लाकर यह धूल ,
गए क्यो बिखरा जीवन -फूल
हुई क्या मुझसे कोई भूल ?
खड़ी कब से मन -मन्दिर द्वार
सजीले फूलों का ले हार ,
करोगे कब इसको स्वीकार
करोगे कब इसको स्वीकार ,
साधना की ये अन्तिम भूल
गए क्यो बिखरा जीवन -फूल
हुई क्या मुझसे कोई भूल ?
जहाँ मिल जाए तुमको प्यार
बसा लेना अपना संसार ,
पहन आंसुओं के हार
छुपा लूंगी मैं उर में शूल
भूला देना पथ लेना लीप
उमंगें बन जाए प्रतीक
बाँध पाई मेरी प्रीत
आंक पाये तुम भी भूल

गए क्यो बिखरा जीवन -फूल

हुई क्या मुझसे कोई भूल ?

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रचनाकार ----विवेक सिंह

शनिवार, 22 अगस्त 2009

कही -अनकही

मुट्ठी भर आतंक देश का सिरदर्द बना ,

देखो तो भाड़ फोड़ रहा है अकेला चना ।

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जो कुछ भी तेरे पास है ,सब उधार का

लक्षण नज़र नही आता है ,तुझमे सुधार का ।

ये पाक तेरी हरकतों पर कह रहा भारत ,

'कि अच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का '।

रचनाकार ----विवेक सिंह


रचनाकार

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कृष्ण जी के १०८ नाम

कंस दलन , केशिदमन , जसुदासुत , नंदलाल , मुरलीधर ,गोविन्द, हर , गिरधारी गोपाल ||
सुंदरश्याम , राधारमण , रुक्मणी के श्रृंगार , नन्द नंदन , वासुदेव सुत, राधा प्राणाधार ||
चंद्रश्रेष्ठ यदुवंश के गोपिन के चितचोर , गोपी वल्लभ , कृष्णजी, कान्हा , माखन चोर ||
ब्रजपति , ब्रजनिधि, ब्रज्रमण , ब्रज्दाता , बराजमान , ब्रजभानु , ब्रजचंद्रमा , वृजकेतू भगवान||
श्याम , कन्हय्या , सांवरा , सतभामा सिरमोर , वृजभूषण , अखिलेश्वर, श्यामल , नन्द किशोर||
वृजनायक , घनश्याम जी , गोकल के उजियार , योगेश्यर , यदुवंश्म्नी , भगवान प्राणाधार ||
कुंजबिहारी , देवकी नंदन , परमपिता , गीता गायक , नंदलाला , वासुदेव के प्यारे , दीन दयालु , सुखदायक ||
मुरलीधर , माधव , मदन , चक्र , सुदर्शनधारी , नाग नथेयारास रचेया, वनमाली , श्री बनवारी ||
पार्थसारथी , अच्युत , द्वारिकाधीश ललाम , करुणा सागर , भागवत वछल , नारायण , सुखधाम ,||
शेषशायी , सुखराशी , विट्ठल , तीन लोक के नाथ , राधावल्लभ , करुनेश्वर, मोहन , लक्ष्मी नाथ||
निर्गुण , सगुण , निरंजन , माधव , अविनासी , मायापति , भगतन के दाता , दुखहंता,सुखरासी ||
असुरदमन , संकटहरण , राधा के श्रृंगार , मधुसूदन , त्रिलोकपति , दयासिन्धु , कतार ||
गुणातीत , गोपेश , जगपति , जगदीश्वर, जसुदाजीवन , मुरली मनोहर , सुखकर परमेश्वर ||
पीतवसन , त्रीभंगिमा , गऊ चरावन हार , गीतागायक राधिका नायक मनहर कृष्ण मुरार ||
सेवक याता , भाग्य विधाता , आरत भयहारी , सखा , बंधू तुम सब कुछ मेरे, रक्षक बलिहारी ||

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

रक्षाबंधन

भाई -बहन का बंधन

गंगा- जमुना जलधारा

यह उन्माद बहन को 'अपना '

भइया मेरा सहारा

कैसे बतलाऊ भइया तू है

मेरा कितना प्यारा ,

याद आते ही फूट पड़ती

उर में खुशी की धारा ,

अरमान हो उम्मीद हो

तुम हो मेरा सहारा ,

डूबती हुई जिंदगी का

भइया तुम किनारा ,

भेज रही राखी बहना

बाँध लो भइया हमारा ,

आशीष देती तुम्हे निहारती

राखी भइया हमारा ।

यश- कीर्ति धन -धान बढे

आयु बढे तुम्हारा ।

रोग बला सब दूर हो तुमसे

कष्ट -दिन कभी न आए ,

विघ्न- बाधाएं निकट न आए

लग जाए मेरी दुआएं ,

यत्र- तत्र सर्वत्र हो भइया

रौशन तेरा नाम
रोम रोम सुख सम्पदा चूमे

शौहरत करे सलाम ।

जिस पथ से निकलो तुम भइया

दे आशीष भगवान,

मेरा भाई हो आयुष्मान ......


rachanaakaar -indu singh

सोमवार, 27 जुलाई 2009

मानवता का सार

मैं के साथ सभी जीते है ,

परहित हमारा प्रथम चरण हो ।

स्वर्ग से बढ़कर होगा

उस सुख का अहसास ,

जिस सभ्यता -संस्कृति को लेकर

चला आ रहा इतिहास ।

लिए प्रतिशोध की भावनायें

मन में ,

न करो हनन , मानवता का आज ।

हृदय उदार हो ,मन विशाल हो ,

ऊँचे रक्खो विचार ।

जीवन सादा-सच्चा हो ,

दृढ़ता का परिचायक बनकर

साधो जीने का आधार ।

'दोष ' हम सभी में है

परन्तु

दोष मुक्त होने का

करते रहो प्रयास ।

फिर सफलता कदम चूमेगी ,

मंजिल होगी पास ।

पतझड़ में भी उमीदो की

रख मन में आस ।

करो भलाई औरो की

फ़र्ज़ का करके ध्यान ।

फल की इच्छा न कर आगे

कर्म तेरा प्रधान ।

दृढ़ शक्ति तू मन में ले ,

जगा नया विश्वाश ।

प्रस्फुटित होंगी फिर सारी किरणे

लेकर नया प्रकाश ।


। रचनाकार --ज्योति सिंह

रविवार, 12 जुलाई 2009

यथार्थ



दिन महीना साल बराबर

अपना घर ससुराल बराबर।

कैसी जिल्लत,कैसी इज्ज़त,

घर की मुर्गी दाल बराबर।

तेरे गम का मारा हुआ मैं,

दिखता हूँ, कंकाल बराबर।

प्यार की मीठी बातें भी अब,

लगतीं हैं जंजाल बराबर।
(रचनाकार-विवेक सिंह )