रात यो कहने लगा मुझसे गगन का चाँद ,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझने अपनी बनाकर आप ही फंसता ,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ,
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चांदनी में बैठ स्वपनों को सही करते ।
आदमी का स्वप्न?है वह बुलबुला जल का ,
आज उठता और कल फिर फूट जता है,
किन्तु, फिर भी धन्य, ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनता है,
में न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली ,
देख फिर से चाँद !मुझकों जनता है तू ?
स्वपन मेरे बुलबुले है? है यही पानी ?
आग को भी क्या नही पहचानता है तू ?
में न वह जो स्वप्न को केवल सही करते ,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ ,
और उस पर नीवं रखती हूँ नए घर की ,
इस तरह , दीवार फौलादी उठाती हूँ ।
मनो नही, मनु-पुत्र है यह सामने , जिसकी
कल्पना के जीभ में भी धार होती है ,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल ,
स्वप्न के भी हाँथ में तलवार होती है ।
स्वर के सम्राट को जाकर खबर कर दे ,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे है वे ,
रोकिये , जैसे बने , इन स्वप्न वालों को,
स्वर्ग की ओर बढ़ते आ रहे है वे"।
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रचनाकार - रामधारी सिंह दिनकर
12 टिप्पणियां:
कल्पना के जीभ में भी धार होती है ,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल ,
स्वप्न के भी हाँथ में तलवार होती है ।
वाह बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! इस उम्दा रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!
बहुत सुंदर रचना...
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www.lekhnee.blogspot.com
sajha karne ke liye dhanywaad
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है। वाकई। दिनकर जी ने सही लिखा है। कभी कभी तो मैं सोचता हूं कि आदमी भी क्या वाकई कोई जीव होता है। सोचिए और बताइए।
http://udbhavna.blogspot.com/
nice
अति सुंदर
इस बेहतरीन कविता कप ब्लागरों तक पहुँचाने के लिए शुक्रिया..शुभकामनाएं..
चयन प्रशंसनीय ।
मनो नही, मनु-पुत्र है यह सामने , जिसकी
कल्पना के जीभ में भी धार होती है ,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल ,
स्वप्न के भी हाँथ में तलवार होती है ।............aaj dekhiye phir aapke blog par ye panktiy mil hi gayi!bahut- bahut dhanywad rashtra kavi dinkar ki ye kavita utkrisht rachnao mein se ek hai. bahut-bahut dhanywad ise prakashit karne ke liye
keya khoob rachana hai
इस बेहतरीन कविता के लिए शुक्रिया..शुभकामनाएं.
मेरे बहुत प्रिय बिम्ब हैं यह ।
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