मंगलवार, 23 अगस्त 2011

भजन


सूरदास जी के इस भजन को सबने सुना ही होगा ,ये मुझे बहुत प्रिय है ,आज इसे आप सभी से साझा कर रही हूँ .
हे गोविन्द हे गोपाल राखो शरण

अब तो जीवन हारे ,

नीर पीवन हेटु गया

सिन्धु के किनारे ,

सिन्धु बीच बसत ग्राह

पाँव धरी पछारे ,

चारो पहर युद्ध भयो

ले गयो मझधारे ,

नाक -कान डूबने लागे

कृष्ण को पुकारे ,

सुर कहे श्याम सुनो

शरण है तिहारे

अब की बार मोहे पार करो

नन्द के दुलारे

हे गोविन्द हे गोपाल

हे गोपाल राखो शरण

अब तो जीवन हारे l

बुधवार, 20 जुलाई 2011

राही को समझाए कौन


किस महूरत में दिन निकलता है
शाम तक सिर्फ हाथ मलता है ,

वक़्त की दिल्लगी के बारे में
सोचता हूँ तो दिल दहलता है ,

दोस्तों ने जिसे डूबाया हो
वो जरा देर से संभलता है ,

हमने बौनो की जेब में देखी
नाम जिस चीज का सफलता है ,

तन बदलती थी आत्मा पहले
आजकल तन उसे बदलता है ,

एक धागे का साथ देने को
मोम का रोम -रोम जलता है ,

काम चाहे जेहन से चलता हो
नाम दीवानगी से चलता है ,
,
उस शहर में भी आग की है कमी
रात -दिन जो धुआं उगलता है ,

उसका कुछ तो इलाज़ करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है ,

सिर्फ दो -चार सुख उठाने को
आदमी बारहा फिसलता है ,

याद आते है शेर राही के
दर्द जब शायरी में ढलता है ,
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बालस्वरूप राही
राही को समझाए कौन

गुरुवार, 26 मई 2011

दो छोटी छोटी रचना


चार बार हमें भूख लगेगी
पांचवी बार
हम कुछ खा लेंगे ,

चार बार प्यास लगेगी
पांचवी बार
हम पानी पी लेंगे ,

चार बार हम जागते रहेंगे
पांचवी बार
आ जायेगी नीँद .
.......................................................
आधा पहाड़ दौड़ाता है

आधा दौडाता है हमारा बोझ

आधा प्रेम दौडाता है

आधा दौडाता है सपना

दौड़ते है हम .
......................................
रचनाकार --------मंगलेश डबराल

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

एक और रचना राही जी की


ज्ञान ध्यान कुछ काम आये
हम तो जीवन -भर अकुलाये ,

पथ निहारते दृग पथराये
हर आहट पर मन भरमाये ,

झूठे जग में सच्चे सुख की
क्या तो कोई आस लगाये

देवालय हो या मदिरालय
जहां गये जाकर पछताए

तड़क -भड़क संतो की ऐसी
दुनियादार देख शरमाए

माल लूट का सबने बांटा
हम ही पड़े रहें अलसाए

जो बिक जाता धन्य वही है
जो बिके मूरख कहलाये

टिकट बांटने के नाटक में
धूर्त महानायक बन छाये

शिष्टाचार भ्रष्टता दोनों -
ने अपने सब द्वैत मिटाए

जहां बिछी शतरंज वही ही
शातिर बैठे जाल बिछाए

अब के यू खैरात बँटी है
सारा किस्सा दिल बहलाए

दुर्जन पार लगाता नैया
सज्जन किसका काम बनाये

राही तो सीधे - सादे है
कौन भला क्या उनसे पाये

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ग़ज़ल


उनके वादे कल के है
हम मेहमाँ दो पल के है ,

कहने को दो पलके है
कितने सागर छलके है ,

मदिरालय की मेजो पर
सौदे गंगा जल के है ,

नई सुबह के क्या कहने
ठेकेदार धुंधलके है ,

जो आधे में छूटी हम
मिसरे उसी गजल के है ,

बिछे पाँव में किस्मत है
टुकड़े तो मखमल के है ,

रेत भरी है आँखों में
सपने ताजमहल के है ,

क्या दिमाग का हाल कहे
सब आसार खलल के है ,

सुने आपकी राही कौन
आप भला किस दल के है
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किसी ने निवेदन किया था राही जी के बारे में लिखू सो कुछ शब्द उनके लिए लिख रही हूँ
बाल स्वरुप राही हिंदी गजल और गीत के एक ऐसे पुख्ताकलम रचनाकार है जिन्होंने गत पच्चास वर्षो में अपनी रचना द्वारा जहां एक ओर हिंदी ग़ज़ल और गीत को स्तर ,प्रतिष्ठा और एतबार बख्शा है ,वही दूसरी ओर इन्होने हिंदी के छंद -काव्य को ऐसे समय में समृद्ध करने का कार्य किया है जब वह विभिन्न कव्यान्दोलानो के चलते अपनी साख खोने लगा लगा था स्पष्ट है कि ये दोनों कार्य अपना विशेष महत्व रखते है

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

राही को समझाए कौन


जो बात मेरे कान में ख्वाबो ने कही है
वो बात हमेशा ही गलत हो के रही है

जो चाहो लिखो नाम मेरे सब है मुनासिब
उनकी ही अदालत है यहाँ जिनकी बही है

टपका जो लहू पाँव से मेरे तो वो चीखे
कल जेल से भागा था जो मुजरिम वो वही है

वो चाहे मेरी जीभ मेरे हाथ पर रख दे
मैं फिर भी कहूँगा कि सही बात सही है

इक दोस्त से मिलने के लिए से खड़ा हूँ
कूचा भी वही ,घर भी वही ,दर भी वही है

उम्मीद की जिस छत के तले राही रुका मैं
वो छत ही क़यामत की तरह सिर पे ढही है
......................................................................
एक और रचना बालस्वरूप राही जी की आप सभी के लिए ,उम्मीद नही यकीन है मुझे पसंद आई है ,आपको भी जरूर आएगी .

सोमवार, 28 मार्च 2011

बालस्वरूप राही की गजले


लगे जब चोट सीने में हृदय का भान होता है
सहे आघात जो हंसकर वही इंसान होता है

लगाकर कल्पना के पर उड़ा करते सभी नभ पर
शिला से शीश टकराकर मुझे अभिमान होता है

सुबह ' शाम - कर लगाता काल जब चक्कर
धरा दो सांस में क्या है तभी यह ज्ञान होता है

विदा की बात सुनकर मैं बहक जाऊं असंभव है
जिसे रहना सदा वह भी कही मेहमान होता है

अँधेरा रात -भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर
सदा ही नाश के हाथो नया निर्माण होता है

सोमवार, 14 मार्च 2011

अंतर


दोनों शराब पी रहे थे ,
अंतर सिर्फ इतना है
कि
एक ओर उनको हवालात में
बंद कर कहा जा रहा था
"साले
जाने देश का क्या करेंगे !"
और दूसरी ओर
पुलिस अफसर बड़े मैनर्स से
गिलास टकराता हुआ कह रहा था --
"चीयर्स "
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रचनाकार --सपना जायसवाल

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

मुनव्वर राना की गज़ले


ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी
अब तो छते भी हिन्दू -मुसलमान हो गयी

क्या शहर --दिल में जश्न -सा रहता था रात -दिन
क्या बस्तियां थी ,कैसी बियाबान हो गयी

जा कि चंद साँसे बची है हिसाब से
आँखे तो इन्तजार में लोबान हो गयी

उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखे तमाम उम्र को वीरान हो गयी