सोमवार, 28 मार्च 2011

बालस्वरूप राही की गजले


लगे जब चोट सीने में हृदय का भान होता है
सहे आघात जो हंसकर वही इंसान होता है

लगाकर कल्पना के पर उड़ा करते सभी नभ पर
शिला से शीश टकराकर मुझे अभिमान होता है

सुबह ' शाम - कर लगाता काल जब चक्कर
धरा दो सांस में क्या है तभी यह ज्ञान होता है

विदा की बात सुनकर मैं बहक जाऊं असंभव है
जिसे रहना सदा वह भी कही मेहमान होता है

अँधेरा रात -भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर
सदा ही नाश के हाथो नया निर्माण होता है

13 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी ग़ज़ल पढ़वाने के लिए शुक्रिया.

    सुबह औ' शाम आ -आ कर लगाता काल जब चक्कर
    धरा दो सांस में क्या है तभी यह ज्ञान होता है ।

    बहुत खूब.
    सलाम.

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  2. "विदा की बात सुनकर मैं बहक जाऊं असंभव है
    जिसे रहना सदा वह भी कही मेहमान होता है"

    आत्मबोध कराती सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार

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  3. हर अँधेरा उजाले को निश्चित करने में लगा है।

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  4. सुन्दर ग़ज़ल पढ़वाने के लिए शुक्रिया

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  5. jyoti ji
    bahut -bahut hi achhi lagi yah agzal jo jivan me insaan ko har paristhitiyo se avgat karati huiek sukhad sandesh deti hai.
    अँधेरा रात -भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर
    सदा ही नाश के हाथो नया निर्माण होता है
    bahut hi sundar lagi ye panktiyan.
    bahut bahut badhai
    poonam

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  6. बालस्वरूप राही की गजल की बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
    बहुत बहुत आभार.

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  7. अँधेरा रात -भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर
    सदा ही नाश के हाथो नया निर्माण होता है ।
    आस की ज्योत जगाती पंक्तियां । सुंदर प्रस्तुति

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  8. लगे जब चोट सीने में हृदय का भान होता है
    सहे आघात जो हंसकर वही इंसान होता है ।
    बहुत अच्छी रचना है, प्रस्तुत करने के लिए शुक्रिया.

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  9. Dil khush ho gaya Rahi ji ki gazal padh kar..
    अँधेरा रात -भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर
    सदा ही नाश के हाथो नया निर्माण होता है ।

    bahut khoob

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  10. बहुत दिन बाद आपके पोस्ट पर आया हूं।राही जी की गजल पढवाने के लिए धन्यवाद।

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