शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

मुनव्वर राना की गज़ले


ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी
अब तो छते भी हिन्दू -मुसलमान हो गयी

क्या शहर --दिल में जश्न -सा रहता था रात -दिन
क्या बस्तियां थी ,कैसी बियाबान हो गयी

जा कि चंद साँसे बची है हिसाब से
आँखे तो इन्तजार में लोबान हो गयी

उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखे तमाम उम्र को वीरान हो गयी

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

चार मुक्तक


जिंदगी को मृत्यु का पीना जहर है ,
वक़्त की हर सांस में सोयी कहर है ,
चाँद पर दुनिया भले कोई बसाले ,
अंत में इंसान का मरघट शहर है
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आन पर दे जान ,वह बलिदान है ,
जो रहे बेदाग़ ,वह ईमान है
जो पराये दर्द को अपना सके ,
है नही इंसान वह भगवान है
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संयमित चाह का विस्तार नही होता है ,
दर्द से दर्द का श्रृंगार नही होता है
टूट जाये जो समय की आँधियों के साथ ही ,
बस हविश है देह की ,वह प्यार नही होता है
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लाश जलती देख कर हम सोच लिया करते है ,
जो यहाँ पैदा हुए , दो रोज जिया करते है
जानते है ,हर घड़ी है काल की अपनी घड़ी ,
लौट कर घर ,फिर वही हम पाप किया करते है

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

मुक्तक


इक पल की हार पर ,दुख कर ,
मुस्कुरा के इसे भी ,स्वीकार कर ,
चलना सिखला देती है ,इंसान को ,
राह में लगी हुई ,हर इक ठोकर
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उगते सूरज को , कौन रोक पाया
किरण को अँधेरा कब ढांप पाया ,
जुलम - -सितम से ,कब इंसान हारा ,
आशा को भला कौन मिटा पाया
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सतत प्रयत्न ही ,दुनिया में सफल होते है ,
वे मूर्ख होते है ,जो पछताते रहते है ,
भुला कर अतीत ,भविष्य में झांको ,
पाते है मंजिल वही ,जो चलते रहते है
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दुख को ही ना अपनी नियति मान
असफलताओ को ना ,अपना भाग्य जान ,
उठ संघर्ष कर ,कर्म कर
हर मुसीबत से लड़ना ,अपना फर्ज जान
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अरुणा शर्मा