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सोमवार, 28 मार्च 2011
बालस्वरूप राही की गजले
लगे जब चोट सीने में हृदय का भान होता है
सहे आघात जो हंसकर वही इंसान होता है ।
लगाकर कल्पना के पर उड़ा करते सभी नभ पर
शिला से शीश टकराकर मुझे अभिमान होता है ।
सुबह औ' शाम आ -आ कर लगाता काल जब चक्कर
धरा दो सांस में क्या है तभी यह ज्ञान होता है ।
विदा की बात सुनकर मैं बहक जाऊं असंभव है
जिसे रहना सदा वह भी कही मेहमान होता है ।
अँधेरा रात -भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर
सदा ही नाश के हाथो नया निर्माण होता है ।