शुक्रवार, 26 मार्च 2010

हिन्दुस्तानी गजले


दौरे -जाम है साकी , रिंदी है मस्ती है


ये किस ढब का है मैखाना ,ये कैसी मैपरस्ती है




मुझे अब मयकदे में शीशा - -सागर से क्या लेना


कि मेरे दिल में चश्मे -शाहिदे -राना की मस्ती है




कभी वो भी ज़माना था कि हम दुनिया पे हँसते थे


कभी ये भी ज़माना है कि दुनिया हम पे हंसती है




मुहब्बत की कोई कीमत मुक़र्रर हो नही सकती


ये जिस कीमत पे मिल जाए उसी कीमत पे सस्ती है




मुहब्बत ही नही ख्वाहाँ जवानी के सहारे की


जवानी भी मुहब्बत के सहारे को तरसती है




समझ से अपनी बाहर है ,समझ में नही सकता


तिलिस्मे -राजे -हस्ती फिर तिलिस्मे -राजे -हस्ती है




कोई माने माने 'रवां ' सच है यही लेकिन


हमारी वज्हे-बरबादी हमारी खुद परस्ती है




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रचनाकार --------प्रेमबिहारी लाल सक्सेना 'रवाँ'

11 टिप्‍पणियां:

  1. मुहब्बत की कोई कीमत मुक़र्रर हो नही सकती
    ये जिस कीमत पे मिल जाए उसी कीमत पे सस्ती है....
    बिल्कुल सच्चा शेर कहा है

    मुहब्बत ही नही ख्वाहाँ जवानी के सहारे की
    जवानी भी मुहब्बत के सहारे को तरसती है..
    बहुत खूब...ज्योति जी, लाजवाब है आपकी पसंद.

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  2. bahoot khoob .ak ak sher lajvab hai.
    कभी वो भी ज़माना था कि हम दुनिया पे हँसते थे

    कभी ये भी ज़माना है कि दुनिया हम पे हंसती है ।
    akdam durust frmaya hai.
    dhnywad .

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  3. बहुत उम्दा गज़ल है..आभार प्रस्तुत करने का.

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  4. सोचता हूँ कहीं नकारात्मक टिप्पणी करुँ... लेकिन क्या करुँ आप ग़ज़ल ही ऐसी लिखी है कि सिवाए वाह-वाह के कुछ नहीं कह सकता..

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  5. कभी वो भी ज़माना था कि हम दुनिया पे हँसते थे
    कभी ये भी ज़माना है कि दुनिया हम पे हंसती है ।
    बिल्कुल सही कहा है आपने! बहुत खूब! हर एक शेर एक से बढ़कर एक हैं! इस उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई!

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  6. shukriyaan aap sabhi ka jo meri ko apni pasand banaya aur aapko pasand aaya iskeliye aabahaari hoon .

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  7. कभी वो भी ज़माना था कि हम दुनिया पे हँसते थे

    कभी ये भी ज़माना है कि दुनिया हम पे हंसती है ।


    kyaa baat kahi hai...

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